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Friday, August 16, 2013

एक विचित्र आजादी

  • जहा जीत के सबसे बड़े ''योद्धा'' का गुमनाम बना दिया गया
  • सम्पूर्ण स्वर्णिम इतिहास ''वामपंथियो'' की मदद से पलटा गया, आर्थिक मदद अंग्रेजो के लूटे हुए धन से ली गयी.
  • जिन्ना को जबरदस्ती ''पाकिस्तान'' दिया गया , जबकि 5-6 % मुस्लिम समुदाय इस बटवारे के पक्षधर थे ! 
  • उन अंग्रेजो की ''अंग्रेज़ी'' थाम ली जिसने हमको 200 साल लुटा , जिन अंग्रेजो ने नालन्दा जलाया , हमारे ज्ञान भंडार को अपने नाम से प्रकाशित किया ,
  • अंग्रेजो की कूटनीति के तहत, मुस्लिम हिन्दू विरोधी दंगे मात्र सत्ता के लिये जबरदस्ती करवाये गये , आज जनता दुसमन अंग्रेज़ को नही पाकिस्तान को मानते है ,,
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अब इस गुलामी दिवस की पूर्व संध्या के रूप में मनाऊ ,या 35 लाख हिन्दू सिक्खों के बलिदान दिवस के रूप में मनाऊ ?
1947 में , मुस्लिम समाज के भी निर्दोष लोग मारे गये , आजादी के नाम पर शुरु हुए दंगे आज तक जारी है , कभी असम कभी किस्तवाडा ,न्याय , समाधन किसी को नही मिला , ना ही आगे भी दिख रहा है , डर है , हिन्दू मुस्लिम के नाम पर मिली इस आजादी में, जल्दी ही कही कही पूरा देश ही ना जल जाये ! उधर , व्यापारी चीन भी नये सौदे , संभावना की तलाश में सीमा पर खड़ा है , बस इन यहूदियो , अंग्रेजो और रोम के जाल (इल्लुमिनाती) पर जनता की नजर ही नही है !!

महात्मा गांधी की हत्या के अभियुक्तों का एक समूह चित्र।

खड़े हुए : - शंकर किस्तैया, गोपाल गौड़से, मदनलाल पाहवा, दिगंबर बड़गे.
बैठे हुए: -  नारायण आप्टे, वीर सावरकर, नाथूराम गौड़से, विष्णु विष्णु करकरे
नाथूराम गोडसे पर मोहनदास करमचन्द गान्धी की हत्या के लिये अभियोग पंजाब उच्च न्यायालय में चलाया गया था। इसके अतिरिक्त उन पर १७ अन्य अभियोग भी चलाये गये। किन्तु इतिहासकारों के मतानुसार सत्ता में बैठे लोग भी गान्धी जी की हत्या के लिये उतने ही जिम्मेवार थे जितने कि नाथूराम गोडसे या उनके अन्य साथी। इस दृष्टि से यदि विचार किया जाये तो मदनलाल पाहवा को इस बात के लिये पुरस्कृत किया जाना चाहिये था ना कि दण्डित क्योंकि उसने तो हत्या-काण्ड से दस दिन पूर्व उसी स्थान पर बम फोडकर सरकार को सचेत किया था

Monday, May 20, 2013

Indian-American teen invents 20-second charger



An 18-year-old Indian-American girl has invented a super-capacitor device that could potentially charge your cellphone in less than 20 seconds.

Eesha Khare, from Saratoga, California, was awarded the Young Scientist Award by the Intel Foundation after developing the tiny device that fits inside mobile phone batteries, that could allow them to charge within 20-30 seconds.

According to Khare, her device can last for 10,000 charge-recharge cycles, compared with 1,000 cycles for conventional rechargeable batteries.The so-called super-capacitor, a gizmo that can pack a lot of energy into a tiny space, charges quickly and holds its charge for a long time

Thursday, February 7, 2013

अटल बिहारी वाजपेयी ( Atal Bihari Bajpai)



जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।


हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

अटल बिहारी वाजपेयी

Wednesday, January 16, 2013

भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य

मैं भगतसिंह के बारे में कुछ भी कहने के लिए अधिकृत व्यक्ति नहीं हूं. लेकिन एक साधारण आदमी होने के नाते मैं ही अधिकृत व्यक्ति हूं, क्योंकि भगतसिंह के बारे में अगर हम साधारण लोग गम्भीरतापूर्वक बात नहीं करेंगे तो और कौन करेगा. मैं किसी भावुकता या तार्किक जंजाल की वजह से भगतसिंह के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कभी नहीं करता. इतिहास और भूगोल, सामाजिक परिस्थितियों और तमाम बड़ी उन ताकतों की, जिनकी वजह से भगतसिंह का हम मूल्यांकन करते हैं, अनदेखी करके भगतसिंह को देखना मुनासिब नहीं होगा.
 
भगत सिंह

पहली बात यह कि कि दुनिया के इतिहास में 24 वर्ष की उम्र भी जिसको नसीब नहीं हो, भगतसिंह से बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है? भगतसिंह का यह चेहरा जिसमें उनके हाथ में एक किताब हो-चाहे कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल, तुर्गनेव या गोर्की या चार्ल्स डिकेन्स का कोई उपन्यास, अप्टान सिन्क्लेयर या टैगोर की कोई किताब-ऐसा उनका चित्र नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों सहित भगतसिंह के प्रशंसक-परिवार ने भी लेकिन नहीं किया. भगतसिंह की यही असली पहचान है.

भगतसिंह की उम्र का कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन पाया? महात्मा गांधी भी नहीं, विवेकानन्द भी नहीं. औरों की तो बात ही छोड़ दें. पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की. लेकिन भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अप्रचारित है. इस उज्जवल चेहरे की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो सरस्वती के गोत्र के हैं. वे तक भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं.

दूसरी शिकायत मुझे खासकर हिन्दी के लेखकों से है. 17 वर्ष की उम्र में भगतसिंह को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 'पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या' विषय पर 'मतवाला' नाम के कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर 50 रुपए का प्रथम पुरस्कार मिला था. भगतसिंह ने 1924 में लिखा था कि पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए.

यह आज तक हिन्दी के किसी भी लेखक-सम्मेलन ने ऐसा कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया है. आज तक हिन्दी के किसी भी बड़े लेखकीय सम्मेलन में भगतसिंह के इस बड़े इरादे को लेकर कोई धन्यवाद प्रस्ताव पारित नहीं किया गया है. उनकी इस स्मृति में भाषायी समरसता का कोई पुरस्कार स्थापित नहीं किया गया. इसके बाद भी हम भगतसिंह का शहादत दिवस मनाते हैं. भगतसिंह की जय बोलते हैं. हम उनके रास्ते पर चलना नहीं चाहते. मैं तो लोहिया के शब्दों में कहूंगा कि रवीन्द्रनाथ टेगौर से भी मुझे शिकायत है कि आपको नोबेल पुरस्कार भले मिल गया हो. लेकिन 'गीतांजलि' तो आपने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी. एक कवि को अपनी मातृभाषा में रचना करने का अधिकार है लेकिन भारत के पाठकों को, भारत के नागरिकों को, मुझ जैसे नाचीज व्यक्ति को इतिहास के इस पड़ाव पर खड़े होकर यह भी कहने का अधिकार है कि आप हमारे सबसे बड़े बौद्धिक नेता हैं. लेकिन भारत की देवनागरी लिपि में लिखने में आपको क्या दिक्कत होती.

मैं लोहिया के शब्दों में महात्मा गांधी से भी शिकायत करूंगा कि 'हिन्द स्वराज' नाम की आपने अमर कृति 1909 में लिखी वह अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी. लेकिन उसे आप देवनागरी लिपि में भी लिख सकते थे. जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके. जो काम हिन्दी के लेखक ठीक से करते नहीं हैं. उस पर साहसपूर्वक बात तक नहीं करते हैं. सन् 2009 में भी बात नहीं करते हैं. भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी है. उनके ज्ञान-पक्ष की तरफ हम पूरी तौर से अज्ञान बने हैं. फिर भी भगतसिंह की जय बोलने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है.

तीसरी बात यह है कि भगतसिंह जिज्ञासु विचारक थे, क्लासिकल विचारक नहीं. 23 साल की उम्र का एक नौजवान स्थापनाएं करके चला जाये-ऐसी संभावना भी नहीं हो सकती. भगतसिंह तो विकासशील थे. बन रहे थे. उभर रहे थे. अपने अंतत: तक नहीं पहुंचे थे. हिन्दुस्तान के इतिहास में भगतसिंह एक बहुत बड़ी घटना थे. भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के खांचे से निकलकर अगर हम मूल्यांकन करें और भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के संदर्भ में रखकर अगर हम विवेचित करें, तो दो अलग अलग निर्णय निकलते हैं.

मान लें भगतसिंह 1980 में पैदा हुए होते और 20 वर्ष में बीसवीं सदी चली जाती. उसके बाद 2003 में उनकी हत्या कर दी गई होती. उन्हें शहादत मिल गई होती. तो भगतसिंह का कैसा मूल्यांकन होता. भगतसिंह 1907 में पैदा हुए और 1931 में हमारे बीच से चले गये. ऐसे भगतसिंह का मूल्यांकन कैसा होना चाहिए.

भगतसिंह एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो राष्ट्रवादी और देशभक्त परिवार था. वे किसी वणिक या तानाशाह के परिवार में पैदा नहीं हुए थे. मनुष्य के विकास में उसके परिवार, मां बाप की परवरिश, चाचा और औरों की भूमिका होती है. भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह एक विचारक थे, लेखक थे, देशभक्त नागरिक थे. उनके पिता खुद एक बड़े देशभक्त नागरिक थे. उनका भगतसिंह के जीवन पर असर पड़ा. लाला छबीलदास जैसे पुस्तकालय के प्रभारी से मिली किताबें भगतसिंह ने दीमक की तरह चाटीं. वे कहते हैं कि भगतसिंह किताबों को पढ़ता नहीं था. वह तो निगलता था.

1914 से 1919 के बीच पहला विश्वयुद्ध हुआ. उसका भी भगतंसिंह पर गहरा असर हुआ. भगतसिंह के पिता और चाचा कांग्रेसी थे. भगतसिंह जब राष्ट्रीय राजनीति में धूमकेतु बनकर, ध्रुवतारा बनकर, एक नियामक बनकर उभरने की भूमिका में आए, तब 1928 का वर्ष आया. 1928 हिन्दुस्तान की राजनीति के मोड़ का बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है. 1928 में इतनी घटनाएं और अंग्रेजों के खिलाफ इतने आंदोलन हुए जो उसके पहले नहीं हुए थे. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि 1928 का वर्ष भारी उथलपुथल का, भारी राजनीतिक हलचल का वर्ष था. 1930 में कांग्रेस का रावी अधिवेशन हुआ. 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई. जो कांग्रेस केवल पिटीशन करती थी, अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करती थी. उसको मजबूर होकर लगभग अर्धहिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको कभी कभी झोंकना पड़ा. यह भगतसिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर मर्दाना प्रभाव था. हिन्दुस्तान की राजनीति में कांग्रेस में पहली बार युवा नेतृत्व अगर कहीं उभर कर आया है तो सुभाष बाबू और जवाहरलाल नेहरू के नाम. कांग्रेस में 1930 में जवाहरलाल नेहरू लोकप्रिय नेता बनकर 39 वर्ष की उम्र में राष्ट्र्रीय अध्यक्ष बने. उनके हाथों तिरंगा झंडा फहराया गया और उन्होंने कहा कि पूर्ण स्वतंत्रता ही हमारा लक्ष्य है. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यत: भगतसिंह की वजह से बदला. भगतसिंह इसके समानांतर एक बड़ा आंदोलन चला रहे थे.

लोग गांधीजी को अहिंसा का पुतला कहते हैं और भगतसिंह को हिंसक कह देते हैं. भगतसिंह हिंसक नहीं थे. जो आदमी खुद किताबें पढ़ता था, उसको समझने के लिए अफवाहें गढ़ने की जरूरत नहीं है. उसको समझने के लिए अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, ब्याज स्तुति और ब्याज निंदा की जरूरत नहीं है. भगतंसिंह ने 'मैं नास्तिक क्यों हूं' लेख लिखा है. भगतंसिंह ने नौजवान सभा का घोषणा पत्र लिखा जो कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के समानांतर है. भगतसिंह ने अपनी जेल डायरी लिखी है, जो आधी अधूरी हमारे पास आई है. भगतसिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन का घोषणा पत्र, उसका संविधान बनाया.

पहली बार भगतसिंह ने कुछ ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग हिन्दुस्तान की राजनीतिक प्रयोगशाला में किए हैं जिसकी जानकारी तक लोगों को नहीं है. भगतंसिंह के मित्र कॉमरेड सोहन सिंह जोश उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में ले जाना चाहते थे, लेकिन भगतंसिंह ने मना कर दिया. जो आदमी कट्टर मार्क्सवादी था, जो रूस के तमाम विद्वानों की पुस्तकों को चाटता था. फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास आया तब बिना सिर उठाए भगतसिंह ने उससे कहा 'ठहरो भाई, मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है. थोड़ा रुको.' आप कल्पना करेंगे कि जिस आदमी को कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों पहले, यह मालूम पड़े कि उसको फांसी होने वाली है. उसके बाद भी रोज किताबें पढ़ रहा है. भगतसिंह मृत्युंजय था. हिन्दुस्तान के इतिहास में इने गिने ही मृत्युंजय हुए हैं.

भगतसिंह ने कुछ मौलिक प्रयोग किए थे. इंकलाब जिंदाबाद मूलत: भगतसिंह का नारा नहीं था. वह कम्युनिस्टों का नारा था. लेकिन भगतसिंह ने इसके साथ एक नारा जोड़ा था 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.' भगतसिंह ने तीसरा एक नारा जोड़ा था 'दुनिया के मजदूरों एक हो.' ये तीन नारे भगतसिंह ने हमको दिए थे. कम्युनिस्ट पार्टी या कम्युनिस्टों का अंतर्राष्ट्र्रीय क्रांति का नारा भगतसिंह की जबान में चढ़ने के बाद अमर हो गया. 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' का नारा आज भी कुलबुला रहा है हमारे दिलों के अंदर, हमारे मन के अंदर, हमारे सोच में. क्या सोच कर भगतसिंह ने 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' का नारा दिया होगा. तब तक गांधी जी ने यह नारा नहीं दिया था. क्या सोच कर भगतसिंह ने कहा दुनिया के मजदूरों एक हो.

हम उस देश में रहते हैं, जहां अंग्रेजों के बनाए काले कानून आज भी हमारी आत्मा पर शिकंजा कसे हुए हैं और हमको उनकी जानकारी तक नहीं है. हम इस बात में गौरव समझते हैं कि हमने पटवारी को पचास रुपए घूस खाते हुए पकड़वा दिया और हम समाज के बेहद ईमानदार आदमी हैं. हमें बड़ी खुशी होती है, जब लायंस क्लब के अध्यक्ष बनकर हम कोई प्याऊ या मूत्रशाला खोलते हैं और अपनी फोटो छपवाते हैं. हमें बेहद खुशी होती है अपने पड़ोसी को बताते हुए कि हमारा बेटा आईटीआई में फर्स्ट आया है और अमेरिका जाकर वहां की नौकरी कर रहा है और सेवानिवृत्त होने के बाद उसके बच्चों के कपड़े धोने हम भी जाएंगे. इन सब बातों से देश को बहुत गौरव का अनुभव होता है. लेकिन मूलत: भगतसिंह ने कहा क्या था.

भगतसिंह भारत का पहला नागरिक, विचारक और नेता है जिसने कहा था कि हिन्दुस्तान में केवल किसान और मजदूर के दम पर नहीं, जब तक नौजवान उसमें शामिल नहीं होंगे, तब तक कोई क्रांति नहीं हो सकती. कोई पार्टी नौजवानों को राजनीति में सीधे आने का आव्हान नहीं करती. यह अलबत्ता बात अच्छी हुई कि राजीव गांधी के कार्यकाल में 18 वर्ष के नौजवान को वोट डालने का अधिकार तो मिला. वरना नौजवान को तो हम बौद्धिक दृष्टि से हिन्दुस्तान की राजनीति में बांझ समझते हैं.

हम उस देश में रहते हैं, जहां की सुप्रीम कोर्ट कहती है कि जयललिता जी को इस बात का अधिकार है कि वे हजारों सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दें. और सरकारी कर्मचारियों का कोई मौलिक अधिकार नहीं है कि अपने सेवा शर्तों की लड़ाई के लिए धरना भी दे सकें. प्रदर्शन कर सकें. हड़ताल कर सकें. हम उस देश में रहते हैं, जहां नगरपालिकाएं पीने का पानी जनता को मुहैया कराएं, यह उनका मौलिक कर्तव्य नहीं है. अगर नगरपालिका पीने का पानी मुहैया नहीं कराती है तो भी हम टैक्स देने से नहीं बच सकते. इस देश का सुप्रीम कोर्ट और हमारा कानून कहता है कि आपको नगरपालिका पीने का पानी भले मत दे. आप प्यासे भले मर जाएं लेकिन टैक्स आपको देना पड़ेगा क्योंकि उनके और नागरिक के कर्तव्य में कोई पारस्परिक रिश्ता नहीं है. ये जो जंगल का कानून है 1894 का है.

हम नदियों का पानी उपयोग कर सकें इसका कानून उन्नीसवीं शताब्दी का है. भारतीय दंड विधान लॉर्ड मैकाले ने 1860 में बनाया था. पूरे देश का कार्य व्यापार सारी दुनिया से हो रहा है वह कांट्रेक्ट एक्ट 1872 में बना था. हमारे जितने बड़े कानून हैं, वे सब उन्नीसवीं सदी की औलाद हैं. बीसवीं सदी तो इस लिहाज से बांझ है. अंग्रेजों की दृष्टि से बनाए गए हर कानून में सरकार को पूरी ताकत दी गई है कि जनता के आंदोलन को कुचलने में सरकार चाहे जो कुछ करे, वह वैध माना जाएगा.

आजादी के साठ वर्ष बाद भी इन कानूनों को बदलने के लिए कोई भी सांसद हिम्मत नहीं करता. आवाज तक नहीं उठाता. भगतसिंह संविधान सभा में तो थे नहीं. भगतसिंह ने आजादी तो देखी नहीं. वे कहते थे कि हमको समाजवाद एक जीवित लक्ष्य के रूप में चाहिए जिसमें नौजवान की जरूरी हिस्सेदारी होगी. अस्सी बरस के बूढ़े नेता देश में चुनाव लड़ना चाहते हैं. 75 या 70 बरस के नेता को युवा कह दिया जाता है. 60 वर्ष के तो युवा होते ही होते हैं. हम 25 वर्षों के नौजवानों को संसद में नहीं भेजना चाहते.

महात्मा गांधी भी कहते थे इस देश में 60 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति को किसी पार्टी को टिकट नहीं देना चाहिए. हम पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा आवारा पशुओं, वेश्याओं और साधुओं के देश हैं. सबसे ज्यादा बेकार, भिखारी, कुष्ठ रोगी, एड्स के रोगी, अपराधी तत्व, नक्सलवादी, भ्रष्ट नेता, चूहे, पिस्सू, वकील हमारे यहां हैं. शायद चीन को छोड़कर लेकिन अब हमारी आबादी भी उससे ज्यादा होने वाली हैं. क्या यही भगतसिंह का देश है. यही भगतसिंह ने चाहा था?

असेम्बली में भगतसिंह ने जानबूझकर कच्चा बम फेंका. अंग्रेज को मारने के लिए नहीं. ऐसी जगह बम फेंका कि कोई न मरे. केवल धुआं हो. हल्ला हो. आवाज हो. दुनिया का ध्यान आकर्षित हो. टी डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल के खिलाफ भगतसिंह ने जनजागरण किया. कहां है श्रमिक आंदोलन आज? भारत में कैसी लोकशाही बची है? श्रमिक आंदोलनों को कुचल दिया गया है. इस देश में कोई श्रमिक आंदोलन होता ही नहीं है. होने की संभावना भी नहीं है. इस देश की खलनायकी में यहां की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों का बराबर का अधिकार है. यह भगतसिंह का सपना नहीं था. यह भगतसिंह का रास्ता नहीं है.

एक बिंदु की तरफ अक्सर ध्यान खींचा जाता है अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए कि महात्मा गांधी और भगतसिंह को एक दूसरे का दुश्मन बता दिया जाए. भगतसिंह को गांधी जी का धीरे धीरे चलने वाला रास्ता पसंद नहीं था. लेकिन भगतसिंह हिंसा के रास्ते पर नहीं थे. उन्होंने जो बयान दिया है उस मुकदमे में जिसमें उनको फांसी की सजा मिली है, उतना बेहतर बयान आज तक किसी भी राजनीतिक कैदी ने वैधानिक इतिहास में नहीं दिया.

जेल के अंदर छोटी से छोटी चीज भी भगतसिंह के दायरे के बाहर नहीं थी. जेल के अंदर जब कैदियों को ठीक भोजन नहीं मिलता था और सुविधाएं जो मिलनी चाहिए थीं, नहीं मिलती थीं, तो भगतसिंह ने आमरण अनशन किया. उनको तो मिल गया. लेकिन क्या आज हिन्दुस्तान की जेलों में हालत ठीक है? भगतसिंह को संगीत और नाटक का भी शौक था. भगतसिंह के जीवन में ये सब चीजें गायब नहीं थीं. भगतसिंह कोई सूखे आदमी नहीं थे. भगतसिंह को समाज के प्रत्येक इलाके में दिलचस्पी थी. तरह तरह के विचारों से सामना करना उनको आता था. वे एक कुशल पत्रकार थे. आज हमारे अखबार कहां हैं? अमेरिकी पद्धति और सोच के अखबार. जिन्हें पढ़ने में दो मिनट लगता है. आप टीवी क़े चैनल खोलिए. एक तरह की खबर आएगी और सबमें एक ही समय ब्रेक हो जाता है. प्रताप, किरती, महारथी और मतवाला वगैरह तमाम पत्रिकाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी में भगतसिंह लिखते थे. उनसे ज्यादा तो किसी ने लिखा ही नहीं उस उम्र में. गणेशशंकर विद्यार्थी की उन पर बहुत मेहरबानी थी.

भगतसिंह कुश्ती बहुत अच्छी लड़ते थे. एक बार भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद में दोस्ती वाला झगड़ा हो गया तो भगतसिंह ने चंद्रशेखर आजाद को कुश्ती में चित्त भी कर दिया था. एक बहुरंगी, बहुआयामी जीवन इस नौजवान आदमी ने जिया था. वे मरे हुए या बूढ़े आदमी नहीं थे. खाने पीने का शौक भी भगतसिंह को था. कम से कम दुनिया के 35 ऐसे बड़े लेखक थे जिनको भगतसिंह ने ठीक से पढ़ रखा था. बेहद सचेत दिमाग के 23 साल के नौजवान के प्रति मेरा सिर श्रद्धा से इसलिए भी झुकता है कि समाजवाद के रास्ते पर हिन्दुस्तान के जो और लोग उनके साथ सोच रहे थे, भगतसिंह ने उनके समानांतर एक लकीर खींची लेकिन प्रयोजन से भटककर उनसे विवाद उत्पन्न नहीं किया जिससे अंगरेजी सल्तनत को फायदा हो. मुझे लगता है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में कुछ लोगों को मिलकर काम करना चाहिए था.

मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि महात्मा गांधी और विवेकानंद मिलकर हिन्दुस्तान की राजनीतिक दिशा पर बात क्यों नहीं कर पाये. गांधीजी उनसे मिलने बेलूर मठ गए थे लेकिन विवेकानंद की बीमारी की वजह से सिस्टर निवेदिता ने उनसे मिलने नहीं दिया था. समझ में नहीं आता कि भगतसिंह जैसा विद्वान विचारक विवेकानंद के समाजवाद पर कुछ बोला क्यों नहीं, जबकि विवेकानंद के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त को भगतसिंह ने भाषण देने बुलाया था. यह नहीं कहा जा सकता कि विवेकानंद के विचारों से भगतसिंह परिचित नहीं थे. उनके चेहरे से बहुत से कंटूर उभरते हैं, जिसको देखने की ताब हममें होनी चाहिए.

भगतसिंह समाजवाद और धर्म को अलग अलग समझते थे. विवेकानंद समाजवाद और धर्म को सम्पृक्त करते थे. विवेकानंद समझते थे कि हिन्दुस्तान की धार्मिक जनता को धर्म के आधार पर समाजवाद की घुट्टी अगर पिलायी जाए तो शायद ठीक से समझ में बात आएगी. गांधीजी भी लगभग इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करते थे. लेकिन भगतसिंह हिन्दुस्तान का पहला रेशनल थिंकर, पहला विचारशील व्यक्ति था जो धर्म के दायरे से बाहर था. श्रीमती दुर्गादेवी वोहरा को लेकर जब भगतसिंह को अंग्रेज जल्लादों से बचने के लिए अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डब्बे में कलकत्ता तक की यात्रा करनी पड़ी तो लोगों ने आलोचना की. उन्होंने कहा कि सिख होकर अपने केश कटा लिए आपने? हमारे यहां तो पांच चीजें रखनी पड़ती हैं हर सिख को. उसमें केश भी होता है. यह आपने क्या किया. कैसे सिख हैं आप! जो सज्जन सवाल पूछ रहे थे वे शायद धार्मिक व्यक्ति थे. भगतसिंह ने एक धार्मिक व्यक्ति की तरह जवाब दिया कि मेरे भाई तुम ठीक कहते हो. मैं सिख हूं. गुरु गोविंद सिंह ने कहा है कि अपने धर्म की रक्षा करने के लिए अपने शरीर का अंग अंग कटवा दो. मैंने केश कटवा दिए. अब मौका मिलेगा तो अपनी गरदन कटवा दूंगा. यह तार्किक विचारशीलता भगतसिंह की है. उस नए हिन्दुस्तान में वे 1931 के पहले कह रहे थे जिसमें हिन्दुस्तान के गरीब आदमी, इंकलाब और आर्थिक बराबरी के लिए, समाजवाद को पाने के लिए, देश और चरित्र को बनाने के लिए, दुनिया में हिन्दुस्तान का झंडा बुलंद करने के लिए धर्म जैसी चीज की हमको जरूरत नहीं होनी चाहिए.

आज हम उसी में फंसे हुए हैं. क्या सबूत है कि अयोध्या में राम हुए थे? क्या सबूत है कि मंदिर बन जाने पर रामचंद्र जी वहां आकर विराजेंगे. क्या जरूरत है किसी मस्जिद को तोड़ दिया जाए. क्या जरूरत है कि देश के छोटे छोटे मंदिरों को तोड़ दिया जाए. क्या जरूरत है कि होली दीवाली के त्यौहार पर और कोई बम फेंक दे. इन सारे सवालों का जवाब हम 2009 में ढूंढ़ नहीं पा रहे हैं.

भगतसिंह ने शहादत दे दी, फकत इतना कहना भगतसिंह के कद को छोटा करना है. जितनी उम्र में भगतसिंह कुर्बान हो गए, इससे कम उम्र में मदनलाल धींगरा और शायद करतार सिंह सराभा चले गए थे. भगतसिंह ने तो स्वयं मृत्यु का वरण किया. यदि वे पंजाब की असेंबली में बम नहीं फेंकते तो क्या होता. कांग्रेस के इतिहास को भगतसिंह का ऋणी होना पड़ेगा. लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल और बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस की अगुआई की थी. भगतसिंह लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी शुरू में थे. उनका परिवार आर्य समाजी था. भूगोल और इतिहास से काटकर भगतसिंह के कद को एक बियाबान में नहीं देखा जा सकता. जब लाला लाजपत राय की जलियान वाला बाग की घटना के दौरान लाठियों से कुचले जाने की वजह से मृत्यु हो गई तो भगतसिंह ने केवल उस बात का बदला लेने के लिए एक सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हुई. भगतसिंह चाहते तो और जी सकते थे. यहां वहां आजादी की अलख जगा सकते थे. बहुत से क्रांतिकारी भगतसिंह के साथी जिए ही. लेकिन भगतसिंह ने सोचा कि यही वक्त है जब इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है. जिसमें वक्त के तेवर पढ़ने का माधा हो, ताकत हो वही इतिहास पुरुष होता है.

भगतसिंह ने सारी दुनिया का ध्यान अंग्रेज हुक्मरानों के अन्याय की ओर खींचा और जानबूझकर असेंबली बम कांड रचा. भगतसिंह इतिहास की समझ के एक बहुत बड़े नियंता थे. हम उस भगतसिंह की बात ज्यादा क्यों नहीं करते? भगतसिंह का एक बहुत प्यारा चित्र है जिसमें वे चारपाई पर बैठे हुए हैं. उस चेहरे में हिन्दुस्तान नजर आता है. ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान बैठा हुआ है.

भगतसिंह पर जितनी शोधपरक किताबें लिखी जानी चाहिए थी, उतनी अच्छी किताबें अब भी नहीं लिखी गई हैं. कुछ लोग भगतसिंह के जन्मदिन और शहादत के पर्व को हाल तक मनाते थे. अब उनके हाथ में साम्प्रदायिकता के दूसरे झंडे आ गए हैं. उनको भगतसिंह काम का नजर नहीं आता. किसी भी राजनीतिक पार्टी के घोषणा पत्र को पढ़िए. उनके भी जो समाजवाद का डंका पीट रहे हैं. तो लगेगा कि सब ढकोसला है. हममें से कोई काबिल नहीं है जो भगतसिंह का वंशज कहलाने का अधिकारी हो. भगतसिंह की याद करने का अधिकारी हो. हम उस रास्ते को भूल चुके हैं.

अमेरिका के साम्राज्यवाद के सामने हम गुलामी कर रहे हैं. हम पश्चिम के सामने बिक रहे हैं. बिछ रहे हैं. इसके बाद भी हम कहते हैं हिन्दुस्तान को बड़ा देश बनाएंगे. गांधी और भगतसिंह में एक गहरी राजनीतिक समझ थी. भगतसिंह ने गांधी के समर्थन में भी लिखा है. उनके रास्ते निस्संदेह अलग अलग थे. उनकी समझ अलग अलग थी. जब गांधीजी केन्द्र में थे. कांग्रेस के अंदर एक बार भूचाल आया. गांधीजी के भगतसिंह सम्बन्धी विचार को नकारने की स्थिति आई. उस समय 1500 में लगभग आधे वोट भगतसिंह के समर्थन में आए. भगतसिंह को समर्थन देना या नहीं देना इस पर कांग्रेस विभाजित हो गई. इसी वजह से युवा जवाहरलाल नेहरू को 1930 में रावी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. कांग्रेस के जिस दूसरे नौजवान नेता ने भगतसिंह का वकील बनकर मुकदमा लड़ने की पेशकश की और गांधी का विरोध किया, वह सुभाष बोस 1938 में हरिपुरा और फिर 1939 में त्रिपुरी की कांग्रेस में गांधी के उम्मीदवार को हराकर कांग्रेस का अध्यक्ष बना. इन सबमें भगतसिंह का पुण्य, याद और कशिश है. नौजवानों को आगे करने की जो जुगत भगतसिंह ने बनाई थी, जो राह बताई थी, उस रास्ते पर भारत का इतिहास नहीं चला. मैं नहीं समझता कि नौजवान केवल ताली बजाने के लायक हैं. मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान के नौजवानों को राजनीति से अलग रखना चाहिए. मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान के 18 वर्ष के नौजवान जो वोट देने का अधिकार रखते हैं उनको राजनीति की समझ नहीं है. जब अस्सी नब्बे वर्ष के लोग सत्ता की कुर्सी का मोह नहीं छोड़ सकते तो नौजवान को हिन्दुस्तान की राजनीति से अलग करना मुनासिब नहीं है. लेकिन राजनीति का मतलब कुर्सी नहीं है.

भगतसिंह ने कहा था जब तक हिन्दुस्तान के नौजवान हिन्दुस्तान के किसान के पास नहीं जाएंगे, गांव नहीं जाएंगे. उनके साथ पसीना बहाकर काम नहीं करेंगे तब तक हिन्दुस्तान की आजादी का कोई मुकम्मिल अर्थ नहीं होगा. मैं हताश तो नहीं हूं लेकिन निराश लोगों में से हूं.

मैं मानता हूं कि हिन्दुस्तान को पूरी आजादी नहीं मिली है. जब तक ये अंगरेजों के बनाए काले कानून हमारे सर पर हैं, संविधान की आड़ में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से लेकर हमारे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री फतवे जारी करते हैं कि संविधान की रक्षा होनी है. किस संविधान की रक्षा होनी चाहिए? संविधान में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, केनेडा, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, जापान और कई और देशों की अनुगूंजें शामिल हैं. इसमें याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी, चार्वाक, कौटिल्य और मनु के अनुकूल विचारों के अंश नहीं हैं. गांधी नहीं हैं. भगतसिंह नहीं हैं. लोहिया नहीं हैं. इसमें केवल भारत नहीं है.

हम एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का शिकार हैं. हमको यही बताया जाता है कि डॉ अंबेडकर ने हिन्दुस्तान के संविधान की रचना की. भारत के स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों ने हिन्दुस्तान के संविधान की रचना की. संविधान की पोथी को बनाने वाली असेम्बली का इतिहास पढ़ें. सेवानिवृत्त आईसीएस अधिकारी, दीवान साहब और राय बहादुर और कई पश्चिमाभिमुख बुद्धिजीवियों ने मूल पाठ बनाया. देशभक्तों ने उस पर बहस की. उस पर दस्तखत करके उसको पेश कर दिया. संविधान की पोथी का अपमान नहीं होना चाहिए लेकिन जब हम रामायण, गीता, कुरान शरीफ, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहब पर बहस कर सकते हैं कि इनके सच्चे अर्थ क्या होने चाहिए. तो हमको हिन्दुस्तान की उस पोथी की जिसकी वजह से सारा देश चल रहा है, आयतों को पढ़ने, समझने और उसके मर्म को बहस के केन्द्र में डालने का भी अधिकार मिलना चाहिए. यही भगतसिंह का रास्ता है.

भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि किसी की बात को तर्क के बिना मानो. जब मैं भगतसिंह से तर्क करता हूं. बहस करता हूं. तब मैं पाता हूं कि भगतसिंह के तर्क में भावुकता है और भगतसिंह की भावना में तर्क है. भगतसिंह हिन्दुस्तान का पहला नेता था, पूरी क्रांतिकारी सेना में भगतसिंह अकेला था, जिसने दिल्ली के सम्मेलन में कहा कि हमें सामूहिक नेतृत्व के जरिए पार्टी को चलाने का शऊर सीखना चाहिए. वह तमीज सीखनी चाहिए ताकि हममें से कोई अगर चला जाए तो पार्टी मत बिखरे. भगतसिंह ने सबसे पहले देश में कहा था कि व्यक्ति से पार्टी बड़ी होती है. पार्टी से सिद्धांत बड़ा होता है. हम यह सब भूल गए. हमको केवल तमंचे वाला भगतसिंह याद है. अगर कोई थानेदार अत्याचार करता है तो हमको लगता है भगतसिंह की तरह हम उसे गोली मार दें. हम उसको अजय देवगन समझते हैं या धर्मेन्द्र का बेटा.

भगतसिंह किताबों में कैद है. उसको किताबों से बाहर लाएं. भगतसिंह विचारों के तहखाने में कैद है. उसको बहस के केन्द्र में लाएं. इसका रास्ता भी भगतसिंह ने ही बताया था. भगतसिंह ने कहा था कि ये बड़े बड़े अखबार तो बिके हुए हैं. इनके चक्कर में क्यों पड़ते हो. भगतसिंह और उनके साथी छोटे छोटे ट्रैक्ट 16 और 24 पृष्ठों की पत्रिकाएं छाप कर आपस में बांटते थे. हम यही कर लें तो इतनी ही भगतसिंह की सेवा बहुत है. विचारों की सान पर अगर कोई चीज चढ़ेगी वही तलवार बनेगी. यह भगतसिंह ने हमको सिखाया था. कुछ बुनियादी बातें ऐसी हैं जिनकी तरफ हमको ध्यान देना होगा.

हमारे देश में से तार्किकता, बहस, लोकतांत्रिक आजादी, जनप्रतिरोध, सरकारों के खिलाफ अराजक होकर खड़े हो जाने का अधिकार छिन रहा है. हमारे देश में मूर्ख राजा हैं. वे सत्ता पर लगातार बैठ रहे हैं. जिन्हें ठीक से हस्ताक्षर नहीं करना आता वो देश के राजनीतिक चेक पर दस्तखत कर रहे हैं. हमारे यहां एक आई एम सॉरी सर्विस आ गई है. आईएएस क़ी नौकरशाही. उसमें अब भ्रष्ट अधिकारी इतने ज्यादा हैं कि अच्छे अधिकारी ढूंढ़ना मुश्किल है. हमारे देश में निकम्मे साधुओं की जमात है. वे निकम्मे हैं लेकिन मलाई खाते हैं. इस देश के मेहनतकश मजदूर के लिए अगर कुछ रुपयों के बढ़ने की बात होती है, सब उनसे लड़ने बैठ जाते हैं. हमारे देश में असंगठित मजदूरों का बहुत बड़ा दायरा है. हम उनको संगठित करने की कोशिश नहीं करते. हमारे देश में पहले से ही सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के कानून बने हुए हैं. लेकिन भारत की संसद ने आज तक नहीं सोचा कि भारत के किसानों के भी अधिकार होने चाहिए. भारतीय किसान अधिनियम जैसा कोई अधिनियम नहीं है. किसान की फसल का कितना पैसा उसको मिले वह कुछ भी तय नहीं है. एक किसान अगर सौ रुपये के बराबर का उत्पाद करता है तो बाजार में उपभोक्ता को वह वस्तु हजार रुपये में मिलती है. आठ सौ नौ सौ रुपये बिचवाली, बिकवाली और दलाली में खाए जाते हैं. उस पर भी सरकार का संरक्षण होता है और सरकार खुद दलाली भी करती है. ऐसे किसानों की रक्षा के लिए भगतसिंह खड़े हुए थे.

भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के उद्योगपतियो एक हो जाओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि अपनी बीवी के जनमदिन पर हवाई जहाज तोहफे में भेंट करो और उसको देश का गौरव बताओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि वकीलो एक हो जाओ क्योंकि वकील होने के नाते मुझे पता है कि वकीलों को एक रखना और मेंढकों को तराजू पर रखकर तौलना बराबर की बात है. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के डॉक्टरों को एक करो. उनको मालूम था कि अधिकतर डॉक्टर केवल मरीज के जिस्म और उसके प्राणों से खेलते हैं. उनका सारा ध्येय इस बात का होता है कि उनको फीस ज्यादा से ज्यादा कैसे मिले. अपवाद जरूर हैं. लेकिन अपवाद नियम को ही सिद्ध करते हैं. इसलिए भगतसिंह ने कहा था दुनिया के मजदूरो एक हो. इसलिए भगतसिंह ने कहा था कि किसान मजदूर और नौजवान की एकता होनी चाहिए. भगतसिंह पर राष्ट्रवाद का नशा छाया हुआ था. लेकिन उनका रास्ता मार्क्स के रास्ते से निकल कर आता था. एक अजीब तरह का राजनीतिक प्रयोग भारत की राजनीति में होने वाला था. लेकिन भगतसिंह काल कवलित हो गए. असमय चले गए.

भगतसिंह संभावनाओं के जननायक थे. वे हमारे अधिकारिक, औपचारिक नेता बन नहीं पाए. इसलिए सब लोग भगतसिंह से डरते हैं-अंगरेज और भारतीय हुक्मरान दोनों. उनके विचारों को क्रियान्वित करने में सरकारी कानूनों की घिग्गी बंध जाती है. संविधान पोषित राज्य व्यवस्थाओं में यदि कानून ही अजन्मे रहेंगे तो लोकतंत्र की प्रतिबद्धताओं का क्या होगा? भगतसिंह ने इतने अनछुए सवालों का र्स्पश किया है कि उन पर अब भी शोध होना बाकी है. भगतसिंह के विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं हैं, उन पर क्रियान्वयन कैसे हो-इसके लिए बौद्धिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है.

Wednesday, September 5, 2012

सूर्य- ज्योतिष -हम


सूर्य

खगोल -शास्त्र के अनुसार सूर्य हीलियम और हाइड्रोजन से निर्मित एक अग्निपिण्ड हैं , जो आकाश में स्थित अनंत आकाश गंगाओं में Spiral या मन्दाकिनी नामक एक आकाश गंगा के परिवार में स्थित 1 ½ खरब तारों में एक छोटा सा तारा मात्र हैं. सूर्य का डायमीटर 6 लाख मील हैं जो पृथ्वी से 110 गुना बड़ा हैं. सोलर फॅमिली में 9 ग्रह, ग्रहों के उपग्रह , अनगिनत asteriods , meteors , comets इत्यादि आते हैं.


सोलर -सिस्टम के समस्त घटक सूर्य के प्रबल आकर्षण शक्ति से जकड़े हुए उसकी परिक्रमा करते हैं. अपने इस पूरे परिवार को लेकर सूर्य खुद 200 किलोमीटर/सेकंड की रफ्तार से Spiral आकाश गंगा की परिक्रमा करता हैं . इस एक परिक्रमा में उसे 25 करोड़ वर्ष लगते हैं. सूर्य का तापमान लगभग 6,000-से- 60,000 सेन्टीग्रेड हैं.


सूर्य-पृथ्वी



पृथ्वी सूर्य की आकर्षण शक्ति से वशीभूत होकर उसकी परिक्रमा का रही हैं. सूर्य लगभग पृथ्वी से 9.38 लाख मील दूरी पर स्थित हैं. इतनी दूरी पर रहते हुए भी पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति का श्रेय उसे ही दिया जाता हैं. 30 किलोमीटर/ सेकंड की गति से चलते हुए पृथ्वी लगभग 365 ¼ दिनों में सूर्य की एक परिक्रमा करती है. सूर्य का आकर्षण बल पृथ्वी से 28 गुना अधिक हैं, अर्थात पृथ्वी पर यदि कसी वस्तु का भार 10 किलोग्राम हैं तो सूर्य पर उसका भार 280 किलोग्राम होगा. सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में 8 मिनट लगते हैं और यदि सूर्य पर कोई जोरदार विस्फोट होगा तो पृथ्वी तक उस ध्वनि को उसे आने में 14 साल लग जायेंगे. 


पृथ्वी का आकर चपटापन लिए हैं और उसकी भ्रमण कक्षा भी अंडाकार हैं . इसी विशेषता से शीत और ग्रीष्म ऋतुएँ आती हैं.


आधुनिक विज्ञान केवल सूर्य के प्रकाश,ताप और आणविक विकरण का कुछ अंश ही पता लगा पाया हैं. लेकिन यह सब उसके स्थूल गुण हैं जो किसी भी मानव निर्मित मशीन से प्राप्त किये जा सके हैं लेकिन सूर्य के अन्दर एक सूक्ष्म सत्ता भी उपस्थित रहती हैं जो जीवनी- शक्ति बन कर प्राणियों को उत्पन्न करने, पोषण करने और अभिवर्धन करने का कार्य करती हैं.


पृथ्वी का समस्त जीवन-क्रम सूर्य से ही चलता हैं. अगर सूर्य मिट जाये तो पृथ्वी से समस्त चर-अचर जीवों का अस्तित्व मात्र 3 दिनों में ही समाप्त हो जायेगा. सूर्य से ताप, विद्युत, और प्रकाश की अनवरत निकलने वाली तरंगें यदि पृथ्वी तक नहीं पहुंचे तो सर्वत्र नीरवता, स्तब्धता , परिलक्षित होगी. अणुओं की सक्रित्यता जो पदार्थों का अविर्भाव , अभिवर्धन एवं परिवर्तन करती हैं उसका कोई अस्तित्व नहीं होगा.


सूर्य के प्रकाश की सबसे छोटी इकाई फोटोन में विद्युत, ऊष्मा , और गति तीनों तत्व होते हैं. अतः यह जीवन की सबसे छोटी इकाई प्���ाण - तत्व का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. सृष्ठी के आरंभ से पृथ्वी के वातावरण,प्राणियों,पदार्थों और ऋतुओं में जो भी परिवर्तन आये हैं वे सब सूर्य और पृथ्वी के मध्य चलने वाले विद्युत-चुम्बकीय अदान-प्रदान और प्रतिक्रियाओं से संभव हो पाएं हैं.

सूर्य की नवग्रहों में गिनती 


सूर्य सौर-मंडल में स्थित एक विशालकाय प्रकाश-पुंज तारा हैं जो निश्चित रूप से ग्रह की परिभाषा में नहीं आता हैं. ग्रह तो उसे कहते हैं जो हमारे सौर-मंडल के केंद्र में अवस्थित सूर्य की अपनी -अपनी कक्षा में रहकर परिक्रमा करतें हैं और उससे प्रकाश और ऊर्जा ग्रहण करते हैं, तथा उनमें अपना कोई ताप और तेज़ नहीं होता हैं.


लेकिन हम पृथ्वी निवासी पृथ्वी पर रह कर सूर्य सहित सभी ग्रहों से प्रभावित होतें हैं , अतः ज्योतिषशास्त्र में सूर्य के स्थान पर पृथ्वी को ही केंद्र मान कर , पृथ्वी को स्थिर मान कर , सूर्य को उसकी परिक्रमा करने वाला ग्रह मान लिया हैं.


यह ठीक उसी प्रकार हैं जैसे चलती हुई रेलगाड़ी में बैठ कर हम उसे [ रेलगाड़ी को ] स्थिर और उसके बाहर अगल-बगल के स्थिर पेड, पौधों और मकान इत्यादि को द्रृत गति से दौड़ते हुआ गतिशील देखते है. 


सूर्य- ज्योतिष -हम

सूर्य से निकलने वाली प्रकाश रश्मियों की सूक्ष्मतम इकाई - फोटोन-कई रंगों के अणुओं से बनी होती हैं. मानव शरीर की प्रकाश-आभा या औरा भी कई रंगों के अणुओं से मिलकर बनी होती हैं. 

सूर्य के प्रकाश की तरंगों का मनुष्य के औरा पर प्रतिक्षण प्रभाव पड़ता हैं . इसी प्रभाव के परिणाम स्वरुप औरा अपना रंग बदलता हैं. इन्ही प्रकाश अणुओं के प्रभाव से स्वाभाव, संस्कार, इच्छाएं,एवं क्रिया-शक्ति का निर्माण होता हैं.

प्रातः काल सूर्य की किरने तिरछी पड़ती हैं, मध्यं में सीधी पड़ती हैं एवं रात्रि में किरणों का आभाव होता हैं. इस प्रकार जिस समय बच्चे का जन्म होता हैं उस समय सूर्य से विकरित होने वाली तरंगों के अनुसार उसका स्वाभाव बनता हैं. अर्थात समय के अनुसार स्वाभाव बन जाता हैं.


ग्रीष्म ऋतू [ जब सूर्य वृष और मिथुन राशि में होता हैं] में, सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं. हेमंत ऋतू [ जब सूर्य वृश्चिक और धनु राशि में होता हैं] में तिरछी पड्ती है . अतः इन ऋतुओं में सूर्य की रश्मि में उत्पन्न बालकों का स्वाभाव, शारीरिक , मानसिक स्थिति भिन्न-भिन्न होगी.


ध्रुव प्रकाश में प्रखर तीब्रता मार्च और सितम्बर [ चैत और अश्विन की नवरात्री] में देखि जाती हैं. इस समय पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता हैं . धरती पर बीज बोने का यही समय प्रभावी होता हैं. साधक गण अधिकतर साधनों में सफलता भी इसी समय प्राप्त करते हैं. ऐसा सूर्य से निकालने वाली विशिष्ट विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों के प्रभाव से होता हैं.

मानव शरीर में स्थित Endocrine glands जैसे Thyriod , Peanal , Adrenal , Pituitary आदि मष्तिष्क से उत्पन्न होने वाले विचारों को प्रभावित करते हैं. ये ग्रंथियां सूर्य से अपना सम्बन्ध स्थापित कर स्वयं को विशिष्ट प्रकाश किरणों से भर लेती है . जैसा प्रकाश अवशोषित होगा उसी प्रकार की विचार तरंगें मस्तिष्क में पैदा होंगी. उदाहरण के लिए जिस मानव की ग्रंथि लाल रंग के प्रकाश के कणों को प्रचुरता में ग्रहण करेगी उस मानव का स्वभाव उग्रता, वीरता और उत्तेजना से पूर्ण होगा.

आधुनिक भौतिक विज्ञान आज कल उन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचने की कोशिश कर रहा हैं , जिस पर सदियों पहले भारतीय तत्त्ववेता और ज्योतिष के मर्मज्ञ पहुँच चुके थे. आज कल भौतिकविद भी स्वीकार करने लगे हैं की सौर-मंडल की गतिविधियाँ पृथ्वी के वातावरण और जैविक एवं मानवीय परिस्थियों पर प्रभाव डालती हैं

Tuesday, September 4, 2012

Father of computer programing

कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के जनक (Father of computer programing)

महर्षि पाणिनि के बारे में जाने -

पाणिनि (५०० पू) संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं। इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। इनका जीवनकाल 520 460 ईसा पूर्व माना जाता है

एक शताब्दी से भी पहले प्रिसद्ध जर्मन भारतिवद मैक्स मूलर (१८२३-१९००) ने अपने साइंस आफ थाट ( Science of Thought) में कहा -
"मैं निर्भीकतापूर्वक कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी या लैटिन या ग्रीक में ऐसी संकल्पनाएँ नगण्य हैं जिन्हें संस्कृत धातुओं से व्युत्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त न किया जा सके । इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि 2,50,000 शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है । .... अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का 800 धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट 121 मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके ।"
 
The M L B D News letter ( A monthly of indological bibliography) in April 1993, में महर्षि पाणिनि को first softwear man without hardwear घोषित किया है। जिसका मुख्य शीर्षक था " Sanskrit software for future hardware " जिसमे बताया गया " प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाने के तीन दशक की कोशिश करने के बाद, वैज्ञानिकों को एहसास हुआ कि कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में भी हम 2600 साल पहले ही पराजित हो चुके है। हालाँकि उस समय इस तथ्य किस प्रकार और कहाँ उपयोग करते थे यह तो नहीं कह सकते, परआज भी दुनिया भर में कंप्यूटर वैज्ञानिक मानते है कि आधुनिक समय में संस्कृत व्याकरण सभी कंप्यूटर की समस्याओं को हल करने में सक्षम है।
 
व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संगृहीत हैं।
 
 NASA के वैज्ञानिक Mr.Rick Briggs.ने अमेरिका में कृत्रिम बुद्धिमत्ता और पाणिनी व्याकरण के बीच की शृंखला खोज की। प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाना बहुत मुस्किल कार्य था जब तक कि Mr.Rick Briggs. द्वारा संस्कृत के उपयोग की खोज न गयी। उसके बाद एक प्रोजेक्ट पर कई देशों के साथ करोड़ों डॉलर खर्च किये गये।
 
महर्षि पाणिनि शिव जी बड़े भक्त थे और उनकी कृपा से उन्हें महेश्वर सूत्र से ज्ञात हुआ जब शिव जी संध्या तांडव के समय उनके डमरू से निकली हुई ध्वनि से उन्होंने संस्कृत में वर्तिका नियम की रचना की थी।
 
पाणिनीय व्याकरण की महत्ता पर विद्वानों के विचार :-
  • "पाणिनीय व्याकरण मानवीय मष्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है" (लेनिन ग्राड के प्रोफेसर टी. शेरवात्सकी)।
  • "पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय-प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं" (कोल ब्रुक)।
  • "संसार के व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है... यह मानवीय मष्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अविष्कार है" (सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्डर)।
  • "पाणिनीय व्याकरण उस मानव-मष्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आज तक सामने नहीं रखा"। (प्रो. मोनियर विलियम्स)
।। जयतु संस्‍कृतम् । जयतु भारतम् ।।


 

Tuesday, June 26, 2012

correct method of doing Namaskār

What is the correct method of doing Namaskār?
Herein the answer.

While paying obeisance to God
  1. While paying obeisance to God, bring the palms together. 
  • The fingers should be held loose (not straight & rigid) while joining the palms.
  • The fingers should be kept close to each other without leaving any space between them.
  • The fingers should be kept away from the thumbs.
  • The inner portion of the palms should not touch each other and there should be some space between them.
IMPORTANT : The stage of awakening of spiritual emotion (bhāv) is important to the seeker at the primary level. Hence, for awakening spiritual emotion ( bhāv), he should keep space in between the palms, whereas a seeker who is at the advanced level should refrain from leaving such space in between the palms to awaken the unexpressed spiritual emotion ( bhāv).
  1. After joining the hands one should bow and bring the head forward.
  2. While tilting the head forward, one should place the thumbs at the mid-brow region, i.e. at the point between the eyebrows and try to concentrate on the feet of the Deity.
  3. After that, instead of bringing the folded hands down immediately, they should be placed on the mid-chest region for a minute in such a way that the wrists touch the chest; then only should the hands be brought down.
In the Namaskār posture
  1. The fingers should not be stiff while bringing the palms together because this will lead to a decrease in Sattva component from the vital and mental sheaths and thus increase the Raja component in them. By keeping the fingers relaxed, the subtlest Sattva component will get activated. With the strength of this energy, embodied souls are able to fight powerful distressing energies.
  2. In the Namaskār posture, the joined fingers act as an antenna to assimilate the Chaitanya (Divine consciousness) or the Energy transmitted by a Deity. While joining the palms, the fingers must touch each other because leaving space between the fingers will result in accumulation of energy in that space. This energy will be immediately transmitted in various directions; therefore the seeker's body will lose the benefit of this potent energy.
  3. About the space to be maintained between the palms : For a seeker at the primary level, it is advisable to leave space between the palms; it is not necessary for a seeker at an advanced level to leave space between the palms.
  4. After joining the palms, bow a little. This posture puts pressure on the navel and activates the five vital energies situated there. Activation of these vital energies in the body makes it sensitive to accepting sāttvik frequencies. This later awakens the ' ātmashakti ' (i.e. energy of the soul) and later, bhāv is awakened. This enables the body to accept in large measures the Chaitanya emitted by the Deity.
  5. Touch the thumbs to the mid-brow region. (Please see images above.) This posture awakens the bhāv of surrender in an embodied soul, and in turn activates the appropriate subtle frequencies of Deities from the Universe. They enter through the ' Ādnyā-chakra ’ (sixth centre in the spiritual energy system located in the mid-brow region in the subtle body) of the embodied soul and settle in the space parallel to it at the back interior of the head. In this space the openings to all the three channels converge; namely, the Moon, the Central and the Sun channels. Due to the movement of these subtler frequencies in this space, the Central Channel is activated. Consequently it facilitates the speedy transmission of these frequencies throughout the body, leading to purification of both the gross and subtle bodies at the same time.
  6.  After doing Namaskār , to completely imbibe the Chaitanya of the Deity (that has entered the hands by now), instead of bringing the folded hands down immediately, place them on the mid-chest region in such a way that the wrists touch the chest. The ‘ Anāhat-chakra ‘ is located at the centre of the chest. Akin to the Ādnyā-chakra ’, the activity of the ‘ Anāhat-chakra ‘ is also to absorb the Sattva frequencies. By touching the wrists to the chest, the ‘ Anāhat-chakra ‘ is activated and it helps in absorbing more of the Sattva component. Effect of this Posture : By doing Namaskār in this manner, the Deity's Chaitanya is absorbed to a greater extent by the body, as compared to other methods of doing Namaskār . This gives maximum distress to negative energies. The negative energies that have manifested in a person are unable to touch their thumbs at the mid-brow region in Namaskār . (The negative energies are subtle. But at times they enter an individual's body and manifest in it.)
Question : What is the reason for not wrapping a cloth around the neck while performing circumambulation, doing Namaskār , ritualistic worship, sacrificial fires, chanting and while visiting Guru and Deities?

Answer : When a cloth is wrapped around the neck, it does not activate the Vishuddha-chakra (fifth centre in the spiritual energy system located in the neck in the subtle body) and hence an individual gets less benefit of the Sattva component.