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Tuesday, May 15, 2012

About Nalanda University

नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था..? जानिए सच्चाई...

ABOUT Nalanda University

Nalandawas an ancient center of higher learning in Bihar, India. The site of Nalanda is located in the Indian state of Bihar, about 88 kilometers south east of Patna, and was a Buddhist center of learning from the fifth or sixth century CE to 1197 CE. It has been called "one of the first great universities in recorded history". ( This para taken from wikipedia )

एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क मियां लूटेरा था ....बख्तियार खिलजी. इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया। !!
उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था. एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली, मगर वह ठीक नहीं हो सका. किसी ने उसको सलाह दी... नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय विधियों से इलाज कराया जाय !!
उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय वैद्य ...उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा !!
उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी... मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा, किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो. बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई... बहुत उपाय सोचा... अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर चले गए.. कहा...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!
उसने पढ़ा और ठीक हो गया .. जी गया...
उसको बड़ी झुंझलाहट हुई...उसको ख़ुशी नहीं हुई.. उसको बहुत गुस्सा आया कि उसके मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!
बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर, उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया ...पुस्तकालयों को ही जला के राख कर दिया...!
वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके जलती रहीं उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार डाले.
आज भी बेशरम सरकारें...उस नालायक बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन बनाये पड़ी हैं... ! उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को !!
यह तो बताया ही नहीं... कुरान पढ़ के वह कैसे ठीक हुआ था.?
हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर रख के नहीं पढ़ते, थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते मिएँ ठीक उलटा करते हैं..... कुरान के हर पेज को थूक लगा लगा के पलटते हैं...! बस... वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था... वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट गया...ठीक हो गया और उसने इस एहसान का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया!!
आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान लेते है !!
यह प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।
स्थापना व संरक्षण
इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।
स्वरूप
यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।
 
परिसर
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।
प्रबंधन
समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख--भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।
आचार्य
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
प्रवेश के नियम
प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।
अध्ययन-अध्यापन पद्धति
इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।
अध्ययन क्षेत्र
यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।
पुस्तकालय 
नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।

Monday, March 19, 2012

Sachin Tendulkar

Sachin Tendulkar completes 100 Hundreds

Master Blaster Sachin Tendulkar completed his 100th Hundred in league match of Asia Cup against Bangladesh at Shere Bangla National Stadium, Mirpur Bangladesh on 16th March 2012. Overall Sachin scored 49 hundreds in ODI and 51 in Test matches. Here is a stastical look at his hundreds...

 Sachin - After completed 100th century









Tuesday, November 15, 2011

युवा और देश का इतिहास

आधुनिक विचारों के धनी भारतीय युवा
युवा किसी भी देश के विकास में महत्वपूर्ण होते हैं, उन्हें अच्छे बनने की प्रेरणा इतिहास से मिलती है। भारत को युवाओं का देश कहा जा सकता है और देश की तरक्की में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। आज ही नहीं, आजादी से पहले ही युवा देश के विकास और आजादी में काफी आगे रहे हैं। देश के पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में युवाओं का जोश व मजबूत इरादा हर जगह नजर आया है। चाहें वह महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंहिसात्मक आंदोलन या फिर ताकत के बल पर अंग्रेजों को निकाल बाहर करने का इरादा लिए युवा क्रांतिकारी, सभी के लिए इस दौरान देश की आजादी के सिवाय बाकी सभी चीजें गौण हो गई थीं। स्कूल, कॉलेज राष्ट्रीय गतिविधियों के प्रमुख केंद्र बन रहे थे। इस दौरान शिक्षा का मतलब ही राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली बन गया था। जिसके अंतर्गत अंग्रेजी स्कूलों मिशनरी शिक्षा संस्थानों का बहिष्कार किया गया।

भगत सिंह

23 साल की उम्र बहुत नहीं होती। उम्र के जिस पडाव पर आज के युवा भविष्य, कॅरियर की उधेडबुन में रहते हैं भगत सिंह ने उसी उम्र में अपना जीवन ही राष्ट्र के नाम कर दिया था। दुनिया उन्हें फिलोशफर रिवोल्यूशनर के नाम से जानती है , जो गोली बदूंक की धमक से ज्यादा विचारों की ताकत पर यकीन रखते थे। डीएवी कॉलेज, लाहौर से शिक्षित भगत सिंह अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी, उर्दू पर बराबर अधिकार रखते थे। लेकिन ऐसे प्रतिभावान युवा के लिए जीवन की सुखद राहें इंतजार ही करती रह गई, क्योंकि उनका रास्ता तो कहीं और से जाना तय लिखा था- जी हां, बलिदान की राह का पथिक बन भगत सिंह ने अपना नाम सदा सदा के लिए इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया और इतने वषरें के बाद भी आज हर युवाओं के धडकन में समाए हुए हैं।

 

चंद्रशेखर आजाद

छोटी सी उम्र लेकिन हौसले इतने बुलंद कि दुनिया की सबसे ताकतवर सत्ता भी उसके आगे बेबस नजर आई। केवल पंद्रह साल की उम्र में जेल गए, अंग्रेजों के कोडे खाए। फिर तो इस राह पर उनका सफर, शहादत के साथ ही खत्म हुआ। हम बात कर रहे हैं अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद की। मां की इच्छा थी कि उनका चंदू, काशी विद्या पीठ से संस्क ृत पढे। जिसके लिए उन्होंने वहां प्रवेश भी लिया, लेकिन नियति ने तो उनके लिए कुछ और ही तय कर रखा था। 

 

सुभाष चंद्र बोस

समृद्ध परिवार, असाधारण मेधा , बेहतर शक्षिक माहौल। कहने के लिए तो एक शानदार कॅरियर बनाने की वो सारी चीजें उनके पास मौजूद थी, जिनकी दरकार छात्रों को होती है। लेकिन सुभाष ने वो चुना जिसकी जरूरत भारत को सर्वाधिक थी। आजादी की। 1918 में सुभाष चंद्र बोस ने स्कॉटिश चर्च कॉलेज (कलकत्ता यूनिवर्सिटी) ने स्नातक किया। उसके बाद आईसीएस की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। वो चाहते तो एक सुविधाजनक, एशोआराम का जीवन उनके कदमों पर होता। लेकिन इसे ठुकराकर उन्होंने देश की स्वतंत्रता का संघर्षमय मार्ग चुना। पूरी दुनिया की खाक छानी, फंड जुटाया, आईएनए का गठन किया और ब्रिटिश शासन की जडें हिला दीं।

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पास 1884 में वेस्टर्न फिलॉसपी में बीए करने के बाद विकल्पों की कमी नहीं थी, लेकिन उनका संकल्प तो राष्ट्र सेवा था। उन्होने निराशा में गोते लगा रहे युवा वर्ग को उस समय उठो जागो लक्ष्य तक पहुंचे बिना रूको मत का मंत्र दिया तो वहीं भारत की गरिमा दोबारा स्थापित की। भारत में उनका जन्म दिवस 12 जनवरी युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। अरविंद घोष, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे बहुत से लोगों को इस सूची में स्थान दिया जा सकता है।